Varanasi News: सुबहें,ए बनारस के मंच पर सजी बुढ़वा मंगल , खुशबू के साथ संगीत का रस घुला तो सभी हुए मदमस्त

वाराणसी । अस्सी घाट के सुबहे, ए,बनारस के मंच पर सजी बुढ़वा मंगल जिसके नाम से ही आपको अजीब लगेगा, लेकिन जो लोग संस्कृति और तहजीब के शहर बनारस को जानते हैं इस बुढ़वा मंगल की मस्ती के बारे में जरूर जानते होंगे। इस महफिल में पुरुष दुपलिया टोपी सफेद कुर्ता पायजामा तो महिलाए गुलाबी साड़ी में नजर आई, बनारसियों के मन में तो होली के बाद के इस मंगल को लेकर मस्ती का आलम छा जाता है। महफिल में इत्र व गुलाबजल की खुशबू के साथ संगीत का रस घुला तो सभी मदमस्त हो गए। इसकी वजह भी है, फागुन महीने की समाप्ति और चैत महीने की शुरुआत में हलकी ठंडक के बीच खुले आकाश के नीलाम्बर तले गंगा के आंचल में स्वर और सुर की ऐसी अठखेलियां होती हैं कि गुलाबी मौसम भी मुस्करा उठता है सदियों पुरानी इस परम्परा को बनारस आज भी संजोये हुए है। वाराणसी में इस त्यौहार को लोग होली के समापन के रूप में भी मनाते हैं जहां होली की मस्ती के बाद नए जोश और तन्मयता के साथ बनारसी अपने कामों में जुट जाते हैं। महफ़िल की शुरुआत मोहन लाल त्यागी की शहनाई से हुई। शहनाई से निकले सुर पहले मंगलध्वनि से लोगों का स्वागत किया फिर ठेठ बनारसी घराने की होरी, चैती, ठुमरी ने अस्सी घाट की शाम को यादगार बना दिया।शहनाई से शुरू हुई बुढ़वा मंगल की महफ़िल को जवां किया उस्ताद बिस्म्मिल्लाह खान की दत्तक पुत्री सोमा घोष की गायकी ने। उनके गले से जैसे ही हवेली की होली गीत ‘आज बिरज में होली रे रसिया’ निकला लोग झूम उठे और गुलाब की पंखुड़ियों के बीच मस्त होकर नाचने लगे। इसके बाद तो एक से बढ़कर एक गीत के रस लोगों को सराबोर करने लगे, जिसमें देश ही नहीं बल्कि विदेशों से आये सैकड़ों सैलानी बनारस की इस अनूठी बुढ़वा मंगल की परम्परा में डूब गए। बुढ़वा मंगल का ये उत्सव सिर्फ अपने गीत संगीत के लिए ही नहीं जाना जाता, बल्कि अपने पहनावे और खान-पान के लिए भी जाना जाता है।